केन्द्र और राज्यों मे सत्ता परिवर्तन के बाद शिक्षा के बारे मे दो बातें निरन्तर कही जाती हैं। राज्यपाल भी उच्च शिक्षा को चुस्त-दुरूस्त करने के लिए कुलपतियों का एक दिवसीय सम्मेलन का आयोजन करते हैं। प्रायः सरकार इस बारे में निष्क्रिय रहती है। सरकार अपने ढंग व ढ़र्रे से कार्य करती है। राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में, मैं इस परम्परा से परिचित हूँ। एक बार एक राज्यपाल ने एक कमेटी गठित की, जिसका मैं संयाजक था, भारतीय प्रशासनिक सेवा के दो वरिष्ठ अधिकारी व कुछ कुलपति सदस्य थे। कमेटी ने राज्यपाल के निर्देशानुसार विश्वविद्यालयों की समस्याओं के बारे मे समयावधि मे रपट प्रस्तुत की। सदैव की तरह रिपोर्ट ठंड़े बस्ते में गुम हो गई। परिश्रम से तैयार की गई रपट पर तनिक भी ध्यान नही दिया गया। राजस्थान में उच्च शिक्षा की स्थिति बहुत दयनीय है। राजनीतिक हस्तक्षेप होता रहा है। चयनित विद्यार्थी विश्वविद्यालयों को स्वयं की राजनीतिक क्रीड़ा का प्रांगण समझते हैं। यह भी अपनी प्रकार की वोट बैंक की राजनीति है।
विश्वविद्यालय में ’सेमेस्टर सिस्टम’ के आयोजन, ’स्मार्ट’ बनाने की प्रक्रिया और शिक्षा की ’गुणवत्ता’ के सही अर्थ समझ कर क्रियान्विति द्वारा संभवतः उच्च शिक्षा की दशा व दिशा को सुधारा जा सकता हैं। कुछ वर्षों पूर्व, राजस्थान में सेमेस्टर सिस्टम को एक नवाचार के रूप मे अपनाया गया था। यथार्थ में, इस व्यवस्था को वार्षिक परीक्षा के स्थान पर दो बार परीक्षाओं के प्रावधान के रूप मे लागू किया गया। ऐसी क्रियान्विति इस व्यवस्था की हत्या के समान है। एक सेमेस्टर की अवधि में अध्यापक अपने विषय क्षेत्र में लेक्चर, संवाद, ट्यूटोरियल, पेपर-लेखन और टर्म-पेपर द्वारा शिक्षित करने का कार्य करते हैं। विद्यार्थी को विषय की समझ, लेखन विद्या और मौखिक कला में दक्ष बनाने का प्रयास किया जाता है। निरन्तर मूल्यांकन किया जाता है। राजस्थान मे प्रचलित तथाकथित सेमेस्टर सिस्टम ऐसा नहीं है। विद्यार्थी और अध्यापक उच्च स्तरीय पाठ्य-पुस्तकों से दूर हैं। वन वीक सीरिज द्वारा प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण होना एक बड़ी उपलब्धि समझी जाती है।
विश्वविद्यालयों को स्मार्ट बनाने की चर्चा की जा रही है। राज्यपाल ने 5 नवम्बर को कुलपतियों के साथ 17 बिन्दुओं पर विचार विमर्श किया। रैंकिग, कौशल विकास, स्टूडेंट स्टार्टअप पॉलिसी, लेखों की नई विधि से जाॅंच आदि बिन्दु स्मार्ट बनाने के नए उपाय माने जा रहे हैं। स्थानीय उद्योगों से विश्वविद्यालयों का जुडाव, ई-गवर्नेन्स और गैर-पारम्परिक उर्जा स्त्रोतों के उपयोग पर बल दिया गया। राज्यपाल ने कुलपतियों को इस सन्दर्भ में दिशा-निर्देश भी दिए हैं।
वास्तव में, ’स्मार्ट’ बनाने का आशय व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त बनाने से है। नोकरशाही व लालफीतावाद से मुक्ति के बिना विद्यार्थी, अध्यापक और आमजन के लिए विश्वविद्यालय एक शासकीय कार्यालय की तरह बना रहेगा। विश्वविद्यालय विद्यार्थी-केन्द्रित और अध्यापक-केन्द्रित रहना चाहिए, न कि शासकीय प्रभावी संस्था के रूप में। व्यवस्था की निष्पक्षता व ज्ञानात्मक रूझान सर्वोपरी होने पर विश्वविद्यालय सही मायने में शिक्षा का मंदिर बन सकता है। प्रशासन, विद्यार्थी और अध्यापक के लिए एक सहयोगी उपक्रम के रूप मे होना चाहिए। ’स्मार्ट’ का अर्थ है कि व्यवस्था गुणवतापरक शिक्षा को प्रोत्साहित करे। उच्च शिक्षा में ’गुणवत्ता’ यांत्रिक नही है, गुणात्मक है। संख्यात्मक भी नही है। ज्ञान के मूल तक पहुॅंचना आवश्यक है। अनुभाविक आधार पर, विचारों, सिद्धान्तों और परिकल्पनाओं के मूल्यांकन द्वारा ज्ञान-सृजन किया जाना चाहिए। उपलब्ध विचार-व्यवस्था के उपयोग से धरातलीय वास्तविकता को समझना, और जमीनी हकीकत द्वारा सिद्धान्तों और संकल्पनाओं का मूल्यांकन शिक्षा मे गुणवत्ता का एक सही मार्ग है। 1960-70 के दशकों में राजस्थान विवि में लगभग 50 ऐसे विद्वान कार्यरत थे, जिन्होंने अपने सोच व शोध द्वारा शिक्षा में उच्च-स्तरीय गुणवत्ता का सृजन किया था। उस अवधि के शोध प्रकाशनों, अध्यापकों के लेखनों और संवादों से गुणवत्ता स्वतः निखरती थी।
शासन और विश्वविद्यालयों को ’सेमेस्टर’, ’स्मार्ट’ और ’गुणवत्ता’ जैसे शब्दों को सही अर्थो में समझकर शिक्षा व्यवस्था को सही दशा व दिशा देनी चाहिए। विद्यार्थी को अध्यापक तभी आकर्षित कर पाएगा जब वह स्वयं अपने विषय की गुणवत्ता के लिए समर्पित रहता है। बहुत से अध्यापक ऐसे हैं जिन्होनें कुछ वर्षो तक अमुख विषय पढ़ाये और उसके पश्चात् उन विषयों पर पुस्तकों का प्रकाशन किया, और वे पुस्तकें उच्चस्तरीय कृति मानी गई। क्या राजस्थान में ऐसा अध्यापन नही हो सकता? ऐसा करने के लिए, अध्यापकों के चयनकर्ता, चयनित होने वाले उम्मीदवारों की गुणवत्ता का परीक्षण, और विश्वविद्यालयों में यथोचित वातावरण आवश्यक है। कुलपति के शैक्षिक नेतृत्व की भी अहम भूमिका द्वारा ’गुणवत्ता’ सुनिश्चित की जा सकती है।
(Disclaimer: The views expressed in the article above are those of the author, Professor K L Sharma, Chancellor, Jaipur National University and Former Chancellor, Rajasthan University. The matter and intent of this article has not been edited by theedupress.com. The EduPress shall not be responsible for any damage if caused to any person/organization directly or indirectly.)